दोपहर की धूप में देखा उसे चलते हुए,
राह चलते भेडियों की आंख से बचते हुए।
सहमी सहमी चल रही भीड़ से छुपते हुए,
सोचती सी जा रही थी मन ही मन कुढ़ते हुए।
नारी को विवश है देखा हर तरफ संसार में,
किस-2 को जवाब दे वो इस कुटिल संसार में।
हाँ वो मां है, हाँ वो बेटी, इस पुलकित संसार में,
अग्निपरिक्षा देते आई है वो अनन्त काल से ।
विचित्र रूप हैं देखें उसने, परम पुरुषार्थ के,
कभी देविय रूप में, कभी चांडालिय अवतार में।
सोचती है कचोटती है, हर आह पर वो सोचती है,
भेज कर धरती पे प्रभु ने, क्या कोई उपकार किया?
समाज की बेड़ियों से, अब उसे तुम मुक्ति दो,
या जन्म लेने से पहले, कोख में ही मार दो ।
- भड़ोल
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